लिख रहा हूँ मैं ग़ज़ल शामो सहर पर मेरी है थोड़ी भी इज़्ज़त कौन जाने वाह तो भरपूर मिल जाती है ग़ाफ़िल पर बड़ाई है के तुह्मत कौन जाने
(कुछ लकीरें टेढ़ी मेढ़ी खेंच दी सफ्हा-ए-दिल पर लोग देखे और बोले शा’इरी उम्दा हुई है)
-‘ग़ाफ़िल’
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