Monday, June 06, 2016

किसी भी तर्ह जीने दे नहीं सकती है तुह्मत ये

बदल जाना तेरा यूँ और उस पर भी फज़ीहत ये
के अब हर पल रक़ीबों से हमारी ही शिक़ायत ये

न करना भूलकर भी भूल हमको कम समझने की
वगरना तुझको लेकर डूब ही जाएगी आदत ये

हमारे पास पहले से बहुत धोखे हैं वैसे भी
इनायत कर तू इतनी अब न कर हम पर इनायत ये

हम अपने चाहने वालों को लेंगे खोज ही इक दिन
पसीना बह रहा है रंग भी लाएगी मेहनत ये

चलो अच्छा हुआ जो हुस्न से है उठ गया पर्दा
नहीं तो झेलता रहता ही जी ता’उम्र ज़िल्लत ये

कहा था कौन ग़ाफ़िल इश्क़ फ़र्माने को बतलाओ
किसी भी तर्ह जीने दे नहीं सकती है तुह्मत ये

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. वेहतरीन गज़ल। सभी शेर बहुत ही अच्छे लगे।

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