भले तुझको नहीं उल्फ़त के किस्से याद रहते हैं
मुझे हर बेमुरव्वत वक़्त गुज़रे, याद रहते हैं
कभी अपने नहीं थे जो उन्हें अब याद क्या करना
जो अपने थे कभी मुझको तो सारे याद रहते हैं
अगर भूला है तू कुछ तो मुहब्बत का सबक भूला
तुझे वैसे तो हर इक काम धन्धे याद रहते हैं
नहीं आता तुझे तारीफ़ का इक हर्फ़ भी लेकिन
ज़ख़ीरे के ज़ख़ीरे गालियों के याद रहते हैं
तबस्सुम ग़ैर के लब का जो भाये भी तो क्यूँ भाये
मुझे जब होंट तेरे मुस्कुराते याद रहते हैं
न कुछ भी याद आए पर न जाने क्यूँ मेरी ख़ातिर
तुझे ग़ाफ़िल ज़माने भर के फ़िक़रे याद रहते हैं
-‘ग़ाफ़िल’
मुझे हर बेमुरव्वत वक़्त गुज़रे, याद रहते हैं
कभी अपने नहीं थे जो उन्हें अब याद क्या करना
जो अपने थे कभी मुझको तो सारे याद रहते हैं
अगर भूला है तू कुछ तो मुहब्बत का सबक भूला
तुझे वैसे तो हर इक काम धन्धे याद रहते हैं
नहीं आता तुझे तारीफ़ का इक हर्फ़ भी लेकिन
ज़ख़ीरे के ज़ख़ीरे गालियों के याद रहते हैं
तबस्सुम ग़ैर के लब का जो भाये भी तो क्यूँ भाये
मुझे जब होंट तेरे मुस्कुराते याद रहते हैं
न कुछ भी याद आए पर न जाने क्यूँ मेरी ख़ातिर
तुझे ग़ाफ़िल ज़माने भर के फ़िक़रे याद रहते हैं
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-08-2016) को "भाव हरियाली का" (चर्चा अंक-2432) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'