Sunday, August 25, 2013

फिर क़यामत के प्यार लिख डाला

फिर क़यामत के प्यार लिख डाला।
और फिर ऐतबार लिख डाला।।

लिखना चाहा उसे जभी दुश्मन,
न पता कैसे यार लिख डाला।

उसने क़ातिल निगाह फिर डाली,
उसको फिर ग़मगुसार लिख डाला।

याद आती न अब उसे मेरी,
मैंने तो यादगार लिख डाला।

लिखते लिखते न लिख सका कुछ तो,
तंग आ करके दार लिख डाला।

मैं हूँ ग़ाफ़िल यूँ ग़फ़लतन ये ग़ज़ल,
देखिए क़िस्तवार लिख डाला।।

कमेंट बाई फ़ेसबुक आई.डी.

12 comments:

  1. लिखना चाहा उसे जभी दुश्मन,
    न पता कैसे यार लिख डाला।

    वाह ...बधाई !

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  2. लिखना चाहा उसे जभी दुश्मन,
    न पता कैसे यार लिख डाला।

    वाह वाह !!! बहुत खूब सुंदर गजल ,,
    ,
    RECENT POST : पाँच( दोहे )

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  3. बहुत खूब लिखा है। शुक्रिया आपकी टिपपणी का।

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  4. लिखना चाहा उसे जभी दुश्मन,
    न पता कैसे यार लिख डाला।

    क्या ख़ूबसूरत अंदाज़ है, शेर कहने का ! वाह !!

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  5. लिखते-लिखते ,,बहुत खूब लिख डाला .....

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (02.09.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

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  7. बहुत खूब सुंदर गजल ,,

    कृपया यहाँ भी पधारें और अपने विचार रखे
    , मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11

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  8. सुन्दर अभिव्यक्ति .खुबसूरत रचना ,कभी यहाँ भी पधारें।
    सादर मदन
    http://saxenamadanmohan1969.blogspot.in/
    http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

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  9. लिखना चाहा उसे जभी दुश्मन,
    न पता कैसे यार लिख डाला।

    वाह!

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  10. वाह वाह बहोत खूब ।

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