Saturday, July 16, 2016

अक्स किसका मगर यार बनाता रहा

हिज़्र की आग में जी सुलगता रहा
और पूछे है तू हाल कैसा रहा!

गो लुटा मैं तेरे प्यार में ही मगर
देख तो हौसला प्यार करता रहा

धरपकड़ में मेरा, हुस्न और इश्क़ के
जिस्म छलनी हुआ, जी छलाता रहा

आईना था वही और मैं भी वही
अक्स किसका मगर यार बनता रहा?

ख़ार के रास्तों, हादिसों का शहर
तेरा, किस बात पे नाज़ करता रहा?

लाश अरमान की ग़ज़्ब ता’ज़िन्दगी
मैं ग़रीब अपने कन्धे पे ढोता रहा

इल्म ग़ाफ़िल तुझे इसका हो भी तो क्यूँ
इश्क़ में हिज़्र का ही तमाशा रहा

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-07-2016) को "धरती पर हरियाली छाई" (चर्चा अंक-2405) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete