कहता हूँ सावन की स्याह घटाओं ने
उलझाया पर मुझको तेरी ज़ुल्फ़ों ने
शह्र की गलियों में है जो अफ़रातफ़री
आज शैर की ठानी है दिलवालों ने
सकते में है बाग़बान करता भी क्या
साथ चमन के गद्दारी की फूलों ने
फ़ित्रत से मैं रहा घुमक्कड़ मुझे मगर
आवारा कर दिया शह्र की गलियों ने
आज बन गया जी का भर्ता बेमतलब
ऐसी ऐसी ग़ज़ल सुनाई लोगों ने
चल भी लेता बिना सहारे मैं ग़ाफ़िल
मगर बिगाड़ी आदत तेरे कन्धों ने
-‘ग़ाफ़िल’
उलझाया पर मुझको तेरी ज़ुल्फ़ों ने
शह्र की गलियों में है जो अफ़रातफ़री
आज शैर की ठानी है दिलवालों ने
सकते में है बाग़बान करता भी क्या
साथ चमन के गद्दारी की फूलों ने
फ़ित्रत से मैं रहा घुमक्कड़ मुझे मगर
आवारा कर दिया शह्र की गलियों ने
आज बन गया जी का भर्ता बेमतलब
ऐसी ऐसी ग़ज़ल सुनाई लोगों ने
चल भी लेता बिना सहारे मैं ग़ाफ़िल
मगर बिगाड़ी आदत तेरे कन्धों ने
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-07-2016) को "सच्ची समाजसेवा" (चर्चा अंक-2407) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'