Saturday, September 10, 2016

मेरा सादा सा दिल है और सादी सी ही फ़ित्रत है

जला है जी मेरा और उसपे मुझसे ही शिक़ायत है
न कहना अब के ग़ाफ़िल यूँ ही तो होती मुहब्बत है

मुझे तो होश आ जाए कोई पानी छिड़क दे बस
तेरा होगा भला क्या तेरी तो रिन्दों की सुह्बत है

हुई है राह इक तो अब मुहब्बत हो ही जाएगी
अगर इंसानियत की जी को थोड़ी सी भी आदत है

नहीं मिलता कभी साहिल सफ़ीना-ए-मुहब्बत को
ख़ुदारा हुस्न के सागर में क्यूँ होती ये क़िल्लत है

कभी रंगीन दुनिया के मुझे सपने नहीं आते
मेरा सादा सा दिल है और सादी सी ही फ़ित्रत है

तू पैताने रक़ीबों के हूमेशा है नज़र आता
तेरी इस हुस्न की महफ़िल में क्या इतनी ही क़ीमत है

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-08-2016) को "हिन्दी का सम्मान" (चर्चा अंक-2463) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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