क्या लुत्फ़ हो के तू जूँ उफनती नदी रहे,
डूबूँ मैं तुझमें, साथ मेरी तिश्नगी रहे
मौला करे लगे न किसी की नज़र कभी
ज़ीनत-ए-रू-ए-जाना हमेशा बनी रहे
यूँ भी न पेश आए के पूरा गँवा दूँ होश
लेकिन तू यह करे के ज़रा बेख़ुदी रहे
माना के दिल्लगी से ज़रर भी हुआ, मगर
वह राबिता भी क्या न जहाँ दिल्लगी रहे
क्यूँ बन सँवर के ख़ुद को सयाना दिखा रहा
ग़ाफ़िल रहा है और तू अब भी वही रहे
-‘ग़ाफ़िल’
डूबूँ मैं तुझमें, साथ मेरी तिश्नगी रहे
मौला करे लगे न किसी की नज़र कभी
ज़ीनत-ए-रू-ए-जाना हमेशा बनी रहे
यूँ भी न पेश आए के पूरा गँवा दूँ होश
लेकिन तू यह करे के ज़रा बेख़ुदी रहे
माना के दिल्लगी से ज़रर भी हुआ, मगर
वह राबिता भी क्या न जहाँ दिल्लगी रहे
क्यूँ बन सँवर के ख़ुद को सयाना दिखा रहा
ग़ाफ़िल रहा है और तू अब भी वही रहे
-‘ग़ाफ़िल’
बहुत ही सुन्दर रचना है चंद्र भूषण जी। आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
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