भले दिन रात हरचाता बहुत है
मगर मुझको तो वह प्यारा बहुत है
वो हँसता है बहुत पर बाद उसके
ख़ुदा जाने क्यूँ पछताता बहुत है
जुड़ा है साथ काँटा जिस किसी के
उसी गुल का यहाँ रुत्बा बहुत है
है जिसके हर तरफ़ पानी ही पानी
समन्दर सा वही प्यासा बहुत है
मैं जगता रोज़ो शब हूँ इसलिए भी
के वक़्ते आखि़री सोना बहुत है
अगर ख़ुद्दार है तो डूबने को
सुना हूँ आब इक लोटा बहुत है
है राह आसान रुस्वाई की सो अब
उसी पर आदमी चलता बहुत है
न हो पाया भले इक शे’र तो क्या
किसी ग़ाफ़िल का यूँ जगना बहुत है
-‘ग़ाफ़िल’
मगर मुझको तो वह प्यारा बहुत है
वो हँसता है बहुत पर बाद उसके
ख़ुदा जाने क्यूँ पछताता बहुत है
जुड़ा है साथ काँटा जिस किसी के
उसी गुल का यहाँ रुत्बा बहुत है
है जिसके हर तरफ़ पानी ही पानी
समन्दर सा वही प्यासा बहुत है
मैं जगता रोज़ो शब हूँ इसलिए भी
के वक़्ते आखि़री सोना बहुत है
अगर ख़ुद्दार है तो डूबने को
सुना हूँ आब इक लोटा बहुत है
है राह आसान रुस्वाई की सो अब
उसी पर आदमी चलता बहुत है
न हो पाया भले इक शे’र तो क्या
किसी ग़ाफ़िल का यूँ जगना बहुत है
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-12-2016) को "देश बदल रहा है..." (चर्चा अंक-2548) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'