Monday, December 26, 2016

राहे उल्फ़त पे वो ग़ाफ़िल जी! मगर जाते हैं

देखा करता हूँ उन्हें शामो सहर जाते हैं
पर न पूछूँगा के किस यार के घर जाते हैं

मैं हज़ारों में भी तन्हा जो रहा करता हूँ
वो ही बाइस हैं मगर वो ही मुकर जाते हैं

है हक़ीक़त के कभी वो तो मेरे हो न सके
चश्म गो मैं हूँ बिछाता वो जिधर जाते हैं

आईना साथ लिए रहता हूँ मैं इस भी सबब
लोग कहते हैं वो शीशे में उतर जाते हैं

आह! डर जाने की फ़ित्रत न गयी उनकी अभी
देखते क्या हैं जो वो ख़्वाब में डर जाते हैं

बारिशे रह्मते रब में हैं अगर भीग गये
ज़िश्तरू भी तो यहाँ यार सँवर जाते हैं

वैसे आता ही नहीं इश्क़ निभाना उनको
राहे उल्फ़त पे वो ग़ाफ़िल जी! मगर जाते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-12-2016) को मांगे मिले न भीख, जरा चमचई परख ले-; चर्चामंच 2569 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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