है क़ुबूल आज मुझे मोम से पत्थर कर दे
मुझपे रब उसकी मुहब्बत की नज़र पर कर दे
मेरे अल्लाह मुझे भी तो तसल्ली हो कभी
उसके शाने पे कभी भी तो मेरा सर कर दे
वो जो आतिश है जलाती है मुझे शामो सहर
कोई उसको तो मेरे जिस्म से बाहर कर देे
मेरे इज़्हारे मुहब्बत पे लगा अपनी मुहर
वो अगर चाहे मक़ाँ मेरा अभी घर कर दे
ऐ ख़ुदा कैसी है उलझी ये डगर उल्फ़त की
अपने ग़ाफ़िल के लिए कोई तो रहबर कर दे
-‘ग़ाफ़िल’
मुझपे रब उसकी मुहब्बत की नज़र पर कर दे
मेरे अल्लाह मुझे भी तो तसल्ली हो कभी
उसके शाने पे कभी भी तो मेरा सर कर दे
वो जो आतिश है जलाती है मुझे शामो सहर
कोई उसको तो मेरे जिस्म से बाहर कर देे
मेरे इज़्हारे मुहब्बत पे लगा अपनी मुहर
वो अगर चाहे मक़ाँ मेरा अभी घर कर दे
ऐ ख़ुदा कैसी है उलझी ये डगर उल्फ़त की
अपने ग़ाफ़िल के लिए कोई तो रहबर कर दे
-‘ग़ाफ़िल’
वाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर ग़ज़ल,
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल
ReplyDeleteवह जो आतिश है जला देती मुझे शामो सहर
ReplyDeleteकोई उसको तो मेरे जिस्म से बाहर कर देे
वाह, बहुत ख़ूब
हार्दिक शुभकामनाएं ग़ाफ़िल जी 💐🙏💐
सारे शेर सुन्दर लिखे गए
ReplyDeleteऐ ख़ुदा कैसी है उलझी ये डगर उल्फ़त की
ReplyDeleteअपने ग़ाफ़िल के लिए कोई तो रहबर कर दे...
बेहतरीन अश़आर..
सादर..