चाहा मैंने जो किसी को भी कभी दिल की तरह
दूर क्यूँ मुझको लगा शख़्स वो मंजिल की तरह
ज़िंदाँ-ए-ज़ुल्फ़ में हूँ क़ैद ज़माने से अब
कोई आ जाये मेरे वास्ते काफ़िल की तरह
उसकी है तीरे नज़र रू-ब-रू दिल है मेरा
पेश आये तो कभी हाय वो क़ातिल की तरह
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा मैंने
अब चले साथ कोई चाहे मुक़ाबिल की तरह
आज आवारगी-ए-दिल का मेरे सोहरा है
तेरे कूचे में जो भटके है वो ग़ाफ़िल की तरह
दूर क्यूँ मुझको लगा शख़्स वो मंजिल की तरह
ज़िंदाँ-ए-ज़ुल्फ़ में हूँ क़ैद ज़माने से अब
कोई आ जाये मेरे वास्ते काफ़िल की तरह
उसकी है तीरे नज़र रू-ब-रू दिल है मेरा
पेश आये तो कभी हाय वो क़ातिल की तरह
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा मैंने
अब चले साथ कोई चाहे मुक़ाबिल की तरह
आज आवारगी-ए-दिल का मेरे सोहरा है
तेरे कूचे में जो भटके है वो ग़ाफ़िल की तरह
(ज़िंदाँ-ए-ज़ुल्फ़=ज़ुल्फ़ों का क़ैदखाना, काफ़िल=ज़ामिन)
आदरणीया संगीता जी नमस्ते!
ReplyDeleteप्रथमतः मेरी रचना चर्चा मंच पर शामिल करने के लिए आपको कोटिशः धन्यवाद। आज के चर्चा मंच पर आपने जिन मोतियों की बानगी रखी है वो सभी वाकई अनमोल हैं। इनमें आनन्द द्विवेदी जी की ग़ज़ल ‘ख़त लिख रहा हूँ तुमको’, वंदना गुप्ता जी की प्रस्तुति ‘प्रेम का कैनवास’, बाबूषा की ‘मैं एक स्लेटी पहाड़ी हूँ’, आकुल जी की ‘इस तरह से’, रेखा जी का ‘दर्द किसी सूने घर का’ अरुण कुमार निगम की रचना ‘चैत की चंदनिया’ डॉ0 कविता किरण जी की ग़ज़ल ‘अमृत पीकर भी है मानव मरा हुआ’, सैल जी की ग़ज़ल ‘ग़ज़ल में अब मज़ा है क्या’, रश्मि प्रभा जी की रचना ‘अमृत देवता के हाथ’ तथा अन्य सभी रचनाएँ मन के तार को झंकृत कर देने में पुर्णतः सक्षम हैं। समीर लाल जी ‘समीर’ की ग़ज़ल ‘अभी कुछ और बाकी है विशेष उल्लेखनीय है। समीर लाल जी बड़े हस्ताक्षर हैं, उनके बारे में कुछ भी कहना सूरज को दीया दिखाना ही है। पुनः बहुत-बहुत आभार।
-ग़ाफ़िल
ग़ाफ़िल सर!
ReplyDeleteचर्चा मंच जैसा प्लेटफार्म आपकी रचना को मिला, बधाई! वैसे यह अनायास नहीं है। आपका प्रयास दिल को छू लेता है- ‘‘पेश आये तो कभी हाय वो कातिल की तरह’’। बहुत अच्छा।।
es saflata ke liye hardik badhai.... such hi hai baat niklegi to phir door talak jayegi...
ReplyDeletevery nice ghafil saab wah!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
ReplyDeleteआप सभी सुधी जनों को मेरी रचना मनोयोग से पढ़ने और उस पर टिप्पणी करने के लिए हार्दिक धन्यवाद। मयंक जी से आग्रह है कि आइंदा भी इसी तरह हमें प्रोत्साहित करते रहेंगे। उनका प्रोत्साहन मेरे लिए ख़ास है।
ReplyDelete-ग़ाफ़िल
wah!
ReplyDeletekya baat hai!
ReplyDeleteसच है मंज़िल दूर ही होती जाती है...बहुत बढ़िया, बधाई
ReplyDeleteबेहतरीन गज़ल!!!
ReplyDeleteबेहतरीन गजल गाफिल साहब ||
ReplyDeleteबधाई ||
शनिवार १७-९-११ को आपकी पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर है |कृपया पधार कर अपने सुविचार ज़रूर दें ...!!आभार.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया । सुन्दर..|
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब कहा है आपने हर पंक्ति बेहतरीन बन पड़ी है ।
ReplyDeletebhaut hi acchi....
ReplyDeleteउम्र का लम्बा सफ़र तै किया तन्हा मैंने,
ReplyDeleteअब चले साथ कोई चाहे मुक़ाबिल की तरह।
अब क्या फर्क पड़ता है .......वाह गाफिल जी !
बहुत खूबसूरती सेजीवन का फ़लसफ़ा व्यक्त किया है!
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