हारिश न हो जो हुस्न में तो इश्क़ की भी बात क्या?
आँखों से बरसे मै नहीं तो सावनी बरसात क्या?
वैसे तो हम शामो सहर मिलते हैं दौराने सफ़र
पर हो न जो बज्मे तरब तो फिर है मूलाक़ात क्या?
जज़्बातों का मेरे करम जो पाल रक्खा है भरम
वर्ना हो शब तारीक तो फिर चाँद की औक़ात क्या?
वो बाग की नाजुक कली सहमी हुई ये कह पड़ी
जो इस तरह घूरे मुझे तू भी है आदमजात क्या?
ऐ हुस्न की क़ातिल अदा! सुन इश्क़ की भी ये सदा
तुझको भी तो हो इल्म कुछ होती है ता’जीरात क्या?
ग़ाफ़िल गया जिस भी शहर वाँ हर गली हर मोड़ पर
पत्थर बरसते दर-ब-दर तो फिर हैं खुशहालात क्या?
(हारिश=अपने को बना-चुना कर दिखाने का शौक, बज़्मे-तरब=महफ़िल का आनन्द, तारीक=काली, ता’जीरात=कानून की वह किताब जिसमें दण्ड विधान निहित होता है)
-‘ग़ाफ़िल’
आँखों से बरसे मै नहीं तो सावनी बरसात क्या?
वैसे तो हम शामो सहर मिलते हैं दौराने सफ़र
पर हो न जो बज्मे तरब तो फिर है मूलाक़ात क्या?
जज़्बातों का मेरे करम जो पाल रक्खा है भरम
वर्ना हो शब तारीक तो फिर चाँद की औक़ात क्या?
वो बाग की नाजुक कली सहमी हुई ये कह पड़ी
जो इस तरह घूरे मुझे तू भी है आदमजात क्या?
ऐ हुस्न की क़ातिल अदा! सुन इश्क़ की भी ये सदा
तुझको भी तो हो इल्म कुछ होती है ता’जीरात क्या?
ग़ाफ़िल गया जिस भी शहर वाँ हर गली हर मोड़ पर
पत्थर बरसते दर-ब-दर तो फिर हैं खुशहालात क्या?
(हारिश=अपने को बना-चुना कर दिखाने का शौक, बज़्मे-तरब=महफ़िल का आनन्द, तारीक=काली, ता’जीरात=कानून की वह किताब जिसमें दण्ड विधान निहित होता है)
-‘ग़ाफ़िल’
'तू भी है आदमजात क्या?' यह व्यँजना बहुत अच्छी बन पड़ी है। धन्यवाद और बधाई।
ReplyDelete'चाँद की औक़ात क्या'...वाह!
ReplyDeleteबेहद उम्दा ग़ज़ल। बधाई
ReplyDeleteवैसे तो हम शामो-सहर, मिलते हैं दौराने-सफ़र,
ReplyDeleteपर हो न जो बज्मे-तरब, तो फिर है मूलाक़ात क्या?
waah
वैसे तो हम शामो-सहर, मिलते हैं दौराने-सफ़र,
ReplyDeleteपर हो न जो बज्मे-तरब, तो फिर है मूलाक़ात क्या?
do line aur jod di
rashmi ji plz do one comment
ghaphil sir
ReplyDeletehazaro khwaishein aise ke har khawish pe dam nikle
itne pyaare hain ye har sher ke bas tarif hi dil se nikle
wakai lajabab... mujh jaise nau sikhiye ko seekhne ke liye pyaare pyare shabd mile... ek chintan mila..maine pichli ghazal mein guhar shabd ka upyog aapki ghazalon se seekh kar hi kiye.. nayi ghalein likhne wale mujh jaise logon ko naye naye radif aur kafia mil rahe hai...kisi ek sher par main kuch nahin kahna chahta..puri ghazal hi ja lajab hai...mamla dil ka tha phir kee dil se hi har baat hai..punah badhaiye
वो बाग़ की नाज़ुक कलि सहमी हुई सी कह रही ,
ReplyDeleteके इस तरह घूरे मुझे तू भी क्या आदम जात है .सुन्दर प्रयोग .भाई साहब मुबारक .
वो बाग की नाजुक कली सहमी हुई सी, कह पड़ी,
ReplyDeleteके इस तरह घूरे मुझे, तू भी है आदमजात क्या?
क्या कटाक्ष है...बाप रे!
वो बाग की नाजुक कली सहमी हुई सी, कह पड़ी,
ReplyDeleteके इस तरह घूरे मुझे, तू भी है आदमजात क्या?
गज़ब!! बहुत दूर चोट की है!!!!
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवाह!
ReplyDelete'ग़ाफ़िल' गया जिस भी शहर, वाँ हर गली हर मोड़ पर,
ReplyDeleteपत्थर बरसते दर-ब-दर तो फिर हैं खुश-हालात क्या?
यूँ न फूलों को पत्थर कहा कीजिए
आप गुल के घरों में रहा कीजिए
कंकरों को जो चूमा, कली बन गये
चोट कलियों की भी तो सहा कीजिये.
वो बाग की नाजुक कली सहमी हुई सी, कह पड़ी,
ReplyDeleteके इस तरह घूरे मुझे, तू भी है आदमजात क्या?
Behatareen sher!!! Badhaai!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeleteआभार आदरणीय ||
बहुत बेहतरीन गजल !
ReplyDeleteधन्यवाद, सर !
बहुत खूब गाफ़िल जी!
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