Monday, August 29, 2016

क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे

गुल सूख जाए हर इक या ग़ुम हों चाँद तारे
गाएंगे लोग फिर भी याँ गीत प्यारे प्यारे

ऐ अब्र! है बरसना तो झूमकर बरस जा
है गर महज़ टहलना तो फिर यहाँ से जा रे!

गोया के आ रहे हैं अब तक सँभालते ही
पागल नदी को फिर भी दिखते नहीं किनारे

डालो अलाव में जी! कुछ और अब जलावन
क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे

तुर्रा है यह के उल्फ़त ख़ंजर की धार सी है
और उसपे रक्स को हैं बेताब लोग सारे

वह बेल इश्क़ वाली सरसब्ज़ क्या रहेगी
ग़ाफ़िल रहेे जो तेरे शाने के ही सहारे

-‘ग़ाफ़िल’

4 comments:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 30/08/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  2. ऐ अब्र! है बरसना तो झूमकर बरस जा
    है गर महज़ टहलना तो फिर यहाँ से जा रे!

    डालो अलाव में जी! कुछ और अब जलावन
    क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे

    वाह्ह्ह्ह....क्या ख़ूब जनाब

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  3. ऐ अब्र! है बरसना तो झूमकर बरस जा
    है गर महज़ टहलना तो फिर यहाँ से जा रे!

    डालो अलाव में जी! कुछ और अब जलावन
    क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे

    वाह्ह्ह्ह....क्या ख़ूब जनाब

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