Wednesday, April 10, 2013

अब तो आबे-हयात फीके से

हो चुके फ़ाकेहात फीके से।
आज के इख़्तिलात फीके से॥

हसीन मिस्ले-शहर मयख़ाने,
लगते अब घर, देहात फीके से।

साथ साक़ी का हाथ में प्याला,
यूँ तो हर एहतियात फीके से।

बस उसके ख़ाब में मेरा खोना
और हर मा’लूमात फीके से।

चख चुका अब शराबे-लब ग़ाफ़िल,
अब तो आबे-हयात फीके से॥

(फ़ाकेहात=ताज़े हरे मेवे जैसे सेब आदि, इख़्तिलात= चुम्बन आलिंगन आदि, आबे-हयात= अमृत)

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11 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बृहस्पतिवार (11-04-2013) के देश आजाद मगर हमारी सोच नहीं ( चर्चा - 1211 ) (मयंक का कोना) पर भी होगी!
    नवसवत्सर-2070 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ!
    सूचनार्थ...सादर!

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  2. बहुत ही बेहतरीन गजल...
    नव वर्ष की शुभकामनाएँ...
    :-)

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  3. बहुत ही बेहतरीन रचना...आपको नवसंवत्सर की हार्दिक मंगलकामनाएँ!

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  4. साथ साक़ी का हाथ में प्याला,
    यूँ हुए दाल-भात फीके से।....क्या बात है ..बेहतरीन इतनी छोटी बहर में इतनी शानदार ग़ज़ल

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  5. बहुत ही बढ़िया




    सादर

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  6. सुन्दर ग़ज़ल

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  7. बहुत सुन्दर....बेहतरीन रचना
    पधारें "आँसुओं के मोती"

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