ये मक़ाम भी है पड़ाव ही मिला सब यहाँ और कुछ नहीं
है वो तन्हा राह ही दिख रही है जूँ कारवाँ और कुछ नहीं
थे सटे सटे से वो फ़ासले हैं हटी हटी ये करीबियाँ
मेरी ज़िन्दगी की है मौज़ यूँ ही रवाँ रवाँ और कुछ नहीं
कोई रौशनी किसी रात का जो हसीन ख़्वाब जला गयी
हुई सुब्ह तो था हुज़ूम भर व बयाँ बयाँ और कुछ नहीं
अरे! कोह की वो बुलंदियाँ और वादियों का वो गहरापन
खुली आँख तो मुझे दिख रहा था धुआँ धुआँ और कुछ नहीं
ये जो गर्द इतनी है उड़ रही भला क्यूँ इसे भी तो जान लो
इसी मोड़ से अभी है गया कोई नौजवाँ और कुछ नहीं
-‘ग़ाफ़िल’
आभार शास्त्री जी
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल !
ReplyDeleteआभार आपका कालीपद जी!
Deleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
आभार भाई रविकर
Deleteवाह भई गाफ़िल जी बहुत बढ़िया
ReplyDeleteशुक़्रिया काज़ल भाई
Deletewaah waah!!! bahut badhiya.... bahut khub....
ReplyDeleteआभार पल्लवी जी!
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ReplyDeleteकोई रौशनी किसी रात का जो हसीन ख़्वाब जला गयी
फिर सहर थी, अख़बार थे व बयाँ बयाँ और कुछ नहीं
ये जो गर्द अब तक उड़ रही इसे देख कर हैराँ न हो
इसी मोड़ से गुज़रा है फिर कोई नौजवाँ और कुछ नहीं
हाँ नहीं तो!
रवानी है गज़ल में ज़िंदगानी है ,किसी शायर दुनिया का जला हुआ , की पूरी कहानी है।
राम राम भाई!
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...उम्दा ग़ज़ल गाफ़िल जी
ReplyDeleteशुक़्रिया संजय भाई!
DeleteBahut sunder Gafil ji. Har sher bahuut badhiya.
ReplyDeleteशुक़्रिया आशा जी!
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ReplyDeleteशुक्रिया गाफिल भाई। ग़ालिब हो गई आपकी गज़ल हमपे।
वीरू भाई पुनः बहुत-बहुत आभार
Deleteआभार भाई!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ,उम्दा ग़ज़ल गाफिल जी तहे दिल से दाद देती हूँ
ReplyDeletethanks rajesh kumari ji
Deleteबहुत खूबसूरत ग़ज़ल ......
ReplyDeleteकोई रौशनी किसी रात का जो हसीन ख़्वाब जला गयी,
ReplyDeleteफिर सहर थी, अख़बार थे व बयाँ बयाँ और कुछ नहीं।
बहुत सुन्दर ग़ज़ल.....मर्मस्पर्शी.....
मुझे ख़ुशी हुई आभार आपका बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ......
ReplyDeleteयूँ सटे सटे से ये फ़ासले नज़्दीकियाँ यूँ हटी हटी,
ReplyDeleteयूँ ठहर रही मेरी ज़िन्दगी गो रवाँ रवाँ और कुछ नहीं..कमाल कीक्या ग़ज़ल सर जी ..इस शेर के तो क्याकहने ..सटे सटे से फासले .....नजदीकियां यूं हटी हटी ..क्या बात है ...वाहहह ह ह ह ह ह ह ह