इसलिए भी दिलसितां की याद आनी है बहुत
जूतियों की मेरे चेहरे पर निशानी है बहुत
और थोड़ी पीऊँगा है गोया कोटा फुल हुआ
वैसे भी घर जाके मुझको मार खानी है बहुत
आप जो हैं प्लेन से तो फिर जहन्नुम दूर क्या
मेरा क्या! है साइकिल वह भी पुरानी है बहुत
आजकल महफ़िल में चाँदी काटते हम रंगबाज़
ताल पे दे ताल शीला पर जवानी है बहुत
पढ़ गया पूरा, मगर ग़ाफ़िल जी कर देना मुआफ़
आपके दीवान में भी लंतरानी है बहुत
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-03-2016) को "होली आयी है" (चर्चा अंक - 2290) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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रंगों के महापर्व होली की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उर्दू कम समझती हूँ ज्योंकि पूरी शिक्षा संस्कृत माध्यम से हुई है परन्तु आपकी भाषा आशानी से समझ में आ गयी है। रचना बहुत भाव पूर्ण है। धन्यवाद।
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