मिली आज सौग़ात जो नफ़्रतों की
भला क्या ज़ुरूरत हो और आँधियों की
समन्दर किनारा तो दे ही दे लेकिन
पता उसको फ़ित्रत जो है बुज़्दिलों की
कोई मुस्कुराया मुझे देख कर फिर
ख़ुदा ख़ैर करना मेरे दुश्मनों की
वो रूठें हैं सुब और शब भर न माने
नज़ाक़त का मारा हूँ मैं कमसिनों की
कहूँगा नहीं यह के उसके ही निस्बत
मुझे याद आए है अमराइयों की
ये पक्का है ग़ाफ़िल मुहब्बत में है तू
न परवा है जो ख़ार के रास्तों की
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-03-2016) को "दुखी तू भी दुखी मैं भी" (चर्चा अंक - 2286) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'