Monday, February 26, 2018

तू आई तो साँस आखि़री बनके आई

लगे है के तू ज़िन्दगी बनके आई
पै पुड़िया कोई ज़ह्र की बनके आई

बग़ावत पे जाँ भी थी दौराने हिज़्राँ
न तू राबिता आपसी बनके आई

तुझे कब मिली ग़ैर से बोल फ़ुर्सत
मेरी भी ख़ुशी क्या कभी बनके आई

तू मुझको है प्यारी मेरी जान से भी
तू ही दुश्मने जाँ मेरी बनके आई

मैं चाहूँगा बेशक़ के इक बार डूबूँ
है तू जो उफ़नती नदी बनके आई

थी साँसों में रफ़्तारगी थी न तू जब
तू आई तो साँस आखि़री बनके आई

तलब तेरे होंटों के मय की थी ग़ाफ़िल
मगर जाम तू शर्बती बनके आई

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आहा

    मजा आ गया पढ़ कर

    बेहतरीन गजल

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