जान चाहेगा नहीं जान सा माना चाहे
चाहिए चाहने देना जो दीवाना चाहे
दिल का दरवाज़ा हमेशा मैं खुला रखता हूँ
कोई आ जाए अगर शौक से आना चाहे
मैं नहीं बोलूँगा उसको के बहाए न कभी
अश्क उसके हैं बहा दे जो बहाना चाहे
रोक तो सकता हूँ दर्या की रवानी मैं अभी
रोकूँ पर कैसे उसे जी से जो जाना चाहे
अपनी चाहत भी निराली है जहाँ से ग़ाफ़िल
मैं वो चाहूँ ही भला क्यूँ जो ज़माना चाहे
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 26 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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