Tuesday, January 27, 2015

कुछ अलाहदा शे’र : बस पिघल जाओ ज़रा सा

1.
वही ख़ुदगर्ज़ जो ठुकरा के मुझको चल दिया था कल,
न जाने क्या क़यामत है के शब भर याद आया है।
2.
याद में कब तलक आते हैं वे देखो ग़ाफ़िल,
हम भी अब जिनको भुलाने की चाह रखते हैं।
3.
ख़ुद को अब मोम बताने से भला क्या हासिल,
बस पिघल जाओ ज़रा सा तो कोई बात बने।
4.
तक़ाज़ा मंज़िलों का हो भी तो क्यूँ करके हो यारों,
मेरी आवारगी बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल न समझो।
5.
अश्क से लिक्खी इबारत को मिटाता क्यूँ है,
तुझको आना तो न था चश्म में आता क्यूँ है।
6.
पूछे वह आखि़री ख़्वाहिश मुझसे,
ऐसे जैसे के अब भी ज़िन्दा हूँ।
7.
मेरी रूह जा चुकी है अब जिस्म को तो छोड़ो,
बेकार ही क्यूँ खूँ में सब हाथ डुबोते हो।
8.
लिखता हूँ मिटा देता हूँ अक्सर तुम्हारा नाम,
ताके तुझे पता न चले मेरी बेबसी।
9.
बड़ी आला रईसी में गुज़रती जा रही अपनी,
फ़ुर्क़तो रंजोग़म की सल्तनत पर कब से क़ाबिज़ हूँ।
10.
ख़ुदा से इल्तिजा है बात फिर बिगड़े न बन जाए,
दो टूटे दिल के जुड़ने का चला है सिलसिला ग़ाफ़िल।

3 comments:

  1. वही ख़ुदगर्ज़ जो ठुकरा के मुझको चल दिया था कल,
    न जाने क्या क़यामत है के शब भर याद आया है। बहुत सुन्दर शेर साभार! आदरणीय ग़ाफ़िल जी!
    धरती की गोद

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  2. बेहद उम्दा शेर... बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो

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  3. ख़ुद को अब मोम बताने से भला क्या हासिल,
    बस पिघल जाओ ज़रा सा तो कोई बात बने।

    बहुत खुब !
    सभी शेर लाजवाब हैं, गाफि़ल जी ।

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