Friday, January 30, 2015

कुछ अलाहदा शे’र : उनकी नाराज़गी तो काम आए

1.
मनाने के श’ऊर को मेरे,
उनकी नाराज़गी तो काम आए।
2.
अँधेरी रात में ही दीप जले तो अच्छा,
कोई भूला जो याद आए तो ग़ज़ल होती है।
3.
आज हूँ क़ब्र में तो आई फ़ातिहा पढ़ने,
पहले घर पे ही आ जाती तो तेरा क्या जाता।
4.
ये ज़ुबान की मेरी तल्ख़ियाँ जो रुला गयीं तुझे बेतरह,
किसी रोज़ ख़ुश हालात में याद आएंगी फिर रुलाएंगी।
5.
हमारा बोलना उनको कभी भी रास आया क्या?
हमारी बेज़ुबानी रास आ जाए उन्‍हें शायद!!
6.
असमंजस में है ग़ाफ़िल के कौन शराब मुनासिब है,
साक़ी के हाथों की या फिर साक़ी के आँखों वाली।
7.
मैं क्या जानूं सोते-सोते स्वप्न में उसने क्या देखा,
देख मैं उसको स्वप्न देखते अपना सपना भूल गया।
8.
है दिलख़राश सनम देखकर मुझको अक्सर,
दस्त से यकबयक यूँ चाँद छुपाना तेरा।
9.
क़त्ल किया जो तूने हमारा मत कर उसका रंजो-मलाल,
अपने क़ातिल को हम ग़ाफ़िल लाख दुआएं देते हैं।
10.
हक़ीक़त दरहक़ीक़त देखता जाता है यह ग़ाफ़िल,
मगर चुप है बियाबाँ में कोई तूफ़ान आने तक।

2 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (31-01-2015) को "नये बहाने लिखने के..." (चर्चा-1875) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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