Thursday, January 29, 2015

कुछ अलाहदा शे’र : उसको फिर मुझमें लुत्फ़ है शायद

1.
कोई सूरत न दिखे अपनी रिहाई की अब,
क़ैद करके हमें पलकें वो उठाती ही नहीं।
2.
मेरा मातम ही सही थोड़ी तो रौनक़ आए
यूँ भी अर्सा से यहां कुछ तो मनाया न गया
3.
हमारी क़ब्र को क़ब्रों के झुरमुट से अलहदा कर
के उसके हाथ का गुल फिर बग़ल की क़ब्र पर देखा
4.
उसने फिर मुझसे की अदावत जो
उसको फिर मुझमें लुत्फ़ है शायद
5.
बिगड़ जाता तेरा क्या ऐ हवा गर ये भी कर देती
उड़ाया था दुपट्टा जो हमारे छत पे धर देती
6.
नहीं है देखना तुमको न देखो मेरी सू लेकिन
हुुुई ये बात क्‍या जो तुम मेरी आँखों में रहते हो
7.
अजब ही फ़ित्रतों से लैस है इंसान भी ग़ाफ़िल
है रस्ते क़ब्र के पर ख़्वाब देखे तन्दुरुस्ती का

2 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (30.01.2015) को ""कन्या भ्रूण हत्या" (चर्चा अंक-1874)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

    ReplyDelete
  2. क़ब्रदोज़ तमन्नाएं भड़कती ज़ुरूर हैं,
    मौका भी है दस्तूर भी फ़र्मा ही दीजिए।
    बहुत सुन्दर ...

    ReplyDelete