ले लो ये बज़्मे सुखन वाली रियासत
मुँह नहीं ही लगने की अपनी है आदत
कुछ न पाओगे तग़ाफ़ुल करके मुझसे
सोचते हो गर के मिल जाएगी इश्रत
क्यूँ किसी को इश्क़ में रुस्वा करूँ पर
कर तो सकता हूँ मैं गो ऐसी हिमाक़त
है ज़ुरूरी यह के याद इतना रहे ही
आदमी है आदमी अपनी बदौलत
ढूँढते ग़ाफ़िल हैं सारे इश्क़ में क्या
इश्क़ है ख़ुद आप ही में जबके नेमत
-‘ग़ाफ़िल’
मुँह नहीं ही लगने की अपनी है आदत
कुछ न पाओगे तग़ाफ़ुल करके मुझसे
सोचते हो गर के मिल जाएगी इश्रत
क्यूँ किसी को इश्क़ में रुस्वा करूँ पर
कर तो सकता हूँ मैं गो ऐसी हिमाक़त
है ज़ुरूरी यह के याद इतना रहे ही
आदमी है आदमी अपनी बदौलत
ढूँढते ग़ाफ़िल हैं सारे इश्क़ में क्या
इश्क़ है ख़ुद आप ही में जबके नेमत
-‘ग़ाफ़िल’
उम्दा ग़ज़ल
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2.7.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा -3750 पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
वाह ! सुभानअल्लाह
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 15 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह!लाजवाब!
ReplyDeleteबहुत सुंदर उम्दा सृजन।
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