Friday, May 12, 2017

मुझको ग़ैरों के लिए छोड़ के जाने वाले

आह आए ही नहीं जी को जलाने वाले
औ तमाशा भी सभी देखने आने वाले

मुझको जब आने लगा उनके सताने में मज़ा
क्यूँ तभी रूठ गए लोग सताने वाले

वैसे तैयार था नीलामी को अपना भी ज़मीर
पर लगा पाए नहीं दाँव लगाने वाले

जानबख़्शी का मैं एहसान नहीं मानूँगा
मुझको ग़ैरों के लिए छोड़ के जाने वाले

जाने क्यूँ आईना है खाए हुए मुझसे ख़ार
वे भी ग़ाफ़िल हैं थे जो राह पे लाने वाले

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-05-2017) को
    "लजाती भोर" (चर्चा अंक-2631)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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