Wednesday, December 05, 2018

लगती है राहे ख़ुल्द भी क्यूँ पुरख़तर मुझे

है बाख़बर जताए वो यूँ बेख़बर मुझे
गोया है रू-ब-रू ही बुलाता है पर मुझे

जैसे भी और जो भी मेरा हश्र हो वहाँ
आना है तेरे दर पे सितमगर मगर मुझे

मुट्ठी की रेत और मैं दोनों हैं हममिज़ाज
वैसे ही कोई रोज़ है जाना बिखर मुझे

आया कभी क़मर है भला क्या किसी के हाथ
ढूँढे फिरे हो आप जो शामो सहर मुझे

ग़ाफ़िल जी दर्द देती है शीरीं ज़ुबाँ भी क्या
लगती है राहे ख़ुल्द भी क्यूँ पुरख़तर मुझे

-‘ग़ाफ़िल’

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