फ़र्क़ क्या करे कोई ऐसे पल भी आते हैं
वर्क़ कौंधती है या आप मुस्कुराते हैं
बात एक ही तो है यह के राहे उल्फ़त में
लुत्फ़ मुझको आ जाए आप या के पाते हैं
सच तो है जो लगता है दिल सराय सा अपना
देखता हूँ कितने ही लोग आते जाते हैं
उसकी अपनी ख़ूबी है हिज़्र को न कम आँको
जी से पास हैं जो सब दूरियों के नाते हैं
मानता हूँ ग़ाफ़िल हूँ है अक़ूबदारी पर
क्यूँ कहूँ के आप इतना क्यूँ मुझे बनाते हैं
-‘ग़ाफ़िल’
वर्क़ कौंधती है या आप मुस्कुराते हैं
बात एक ही तो है यह के राहे उल्फ़त में
लुत्फ़ मुझको आ जाए आप या के पाते हैं
सच तो है जो लगता है दिल सराय सा अपना
देखता हूँ कितने ही लोग आते जाते हैं
उसकी अपनी ख़ूबी है हिज़्र को न कम आँको
जी से पास हैं जो सब दूरियों के नाते हैं
मानता हूँ ग़ाफ़िल हूँ है अक़ूबदारी पर
क्यूँ कहूँ के आप इतना क्यूँ मुझे बनाते हैं
-‘ग़ाफ़िल’
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ३१ दिसम्बर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'