Friday, December 04, 2015

ज़िन्दगी इस तरह भली है क्या

ये मुहब्बत नयी नयी है क्या
आग जी में कभी लगी है क्या

क़त्ल होकर मुआफ़ करती है
ज़िन्दगी इस क़दर भली है क्या

बात कुछ है जो ख़म हुईं नज़रें
आँख ग़ैरों से फिर लड़ी है क्या

कोई बतलाएगा के अक्सर वो
आईने में ही खोजती है क्या

जैसे मह्सूस हो रूमानी कुछ
उसकी चर्चा यहाँ चली है क्या

यार ग़ाफ़िल नशा-ए-दौलत, अब
ज़िन्दगी से भी क़ीमती है क्या

-‘ग़ाफ़िल’

No comments:

Post a Comment