Saturday, October 08, 2016

मैं ख़ुश्बू हूँ बिखरना चाहता हूँ

तू जाने है के मरना चाहता हूँ?
मैं ख़ुश्बू हूँ बिखरना चाहता हूँ।।

अगर है इश्क़ आतिश से गुज़रना,
तो आतिश से गुज़रना चाहता हूँ।

सही जाए न ताबानी-ए-रुख़, पर
तेरा दीदार करना चाहता हूँ।

सरो सामान और अपना आईना दे!
मैं भी बनना सँवरना चाहता हूँ।

शराबे लब से मुँह मोड़ूं तो कैसे?
कहाँ पीना वगरना चाहता हूँ?

ऐ ग़ाफ़िल तेरा जादू बोले सर चढ़,
तेरे दिल में उतरना चाहता हूँ।।

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-10-2016) के चर्चा मंच "मातृ-शक्ति की छाँव" (चर्चा अंक-2490) पर भी होगी!
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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