तू जाने है के मरना चाहता हूँ?
मैं ख़ुश्बू हूँ बिखरना चाहता हूँ।।
अगर है इश्क़ आतिश से गुज़रना,
तो आतिश से गुज़रना चाहता हूँ।
सही जाए न ताबानी-ए-रुख़, पर
तेरा दीदार करना चाहता हूँ।
सरो सामान और अपना आईना दे!
मैं भी बनना सँवरना चाहता हूँ।
शराबे लब से मुँह मोड़ूं तो कैसे?
कहाँ पीना वगरना चाहता हूँ?
ऐ ग़ाफ़िल तेरा जादू बोले सर चढ़,
तेरे दिल में उतरना चाहता हूँ।।
-‘ग़ाफ़िल’
मैं ख़ुश्बू हूँ बिखरना चाहता हूँ।।
अगर है इश्क़ आतिश से गुज़रना,
तो आतिश से गुज़रना चाहता हूँ।
सही जाए न ताबानी-ए-रुख़, पर
तेरा दीदार करना चाहता हूँ।
सरो सामान और अपना आईना दे!
मैं भी बनना सँवरना चाहता हूँ।
शराबे लब से मुँह मोड़ूं तो कैसे?
कहाँ पीना वगरना चाहता हूँ?
ऐ ग़ाफ़िल तेरा जादू बोले सर चढ़,
तेरे दिल में उतरना चाहता हूँ।।
-‘ग़ाफ़िल’
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-10-2016) के चर्चा मंच "मातृ-शक्ति की छाँव" (चर्चा अंक-2490) पर भी होगी!
ReplyDeleteशारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'