ढूँढा करता हूँ जहाँ तेरा निशाँ होता है
अब बता तू ही के तू यार कहाँ होता है
तेरे पीछे मैं चला जाता हूँ सहरा सहरा
शब को भी गर तू ख़यालों में अयाँ होता है
गो है तूने ही दिया पर हो तुझे क्यूँ एहसास
हाँ वही दर्द मुझे जितना जहाँ होता है
आह भरते हैं कई नाम तेरा ले लेकर
यह तमाशा भी सरे शाम यहाँ होता है
ख़ुश्बू तेरी सी ही आती है जहाँ से ग़ाफ़िल
तू नहीं होता है तो कौन वहाँ होता है
-‘ग़ाफ़िल’
बहुत ही उम्दा | बहुत समय बाद लेखन और ब्लॉग जगत में अपनी उपस्थिति दे रहा हूँ |मेरी ब्लॉग पोस्ट पर आपकी टिप्पणी और सुझाव का अभिलाषी हूँ |
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-03-2017) को
ReplyDelete"खिलते हैं फूल रेगिस्तान में" (चर्चा अंक-2602)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुंदर
ReplyDelete