Monday, September 11, 2017

पागलों की क्या कमी है आजकल

प्यास की शिद्दत बढ़ी है आजकल
जबके आँखों में नदी है आजकल

मुस्कुराए बिन चले जाते हो तुम
ऐसी भी क्या बेबसी है आजकल

जी नहीं ज़र का फ़क़त है राबिता
किस सिफ़त की दोस्ती है आजकल

आजकल छत पर ही आ जाता है चाँद
इसलिए कुछ ताज़गी है आजकल

शह्र की सड़कें खचाखच हैं भरी
तन्हा फिर भी आदमी है आजकल

तुम उगलते थे जिसे वह ज़ह्र भी
हद से ज्‍़यादा क़ीमती है आजकल

उनका रुत्‍बा, उनकी ख़ुशियाँ उनकी ठीस
और इधर लाचारगी है आजकल

क्यूँ लगे है इस तरह जैसे क़फ़न
ज़िन्दगी भी ओढ़ती है आजकल

कर रहे ग़ाफ़िल जी तुम भी शाइरी
पागलों की क्या कमी है आजकल

-‘ग़ाफ़िल’

7 comments:

  1. उम्दा ग़ज़ल
    सादर

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-09-2017) को गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर :चर्चामंच 2725 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत शानदार लिखते है आप।

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