मेरा लहज़ा तो रहा सीधा व सादा अक़्सर
जाने क्यूँ लोग समझ लेते हैं पर क्या अक्सर
कोई क्या मुझको ख़रीदेगा मगर ये तो है
मेरी तन्हाईयों का होता है सौदा अक़्सर
जिस्म के पुर्ज़ों की आवारगी भी देखी है
जब जिसे होना जहाँ था वो नहीं था अक़्सर
यूँ नज़ारे तो हमेशा थे किए सर ऊँचा
मैंने नज़रों को ही झुकती हुई देखा अक़्सर
चाँद हो या न हो ग़ाफ़िल को गरज़ क्या आख़िर
रात भर ढूँढना पड़ता है उजाला अक़्सर
-‘ग़ाफ़िल’
जाने क्यूँ लोग समझ लेते हैं पर क्या अक्सर
कोई क्या मुझको ख़रीदेगा मगर ये तो है
मेरी तन्हाईयों का होता है सौदा अक़्सर
जिस्म के पुर्ज़ों की आवारगी भी देखी है
जब जिसे होना जहाँ था वो नहीं था अक़्सर
यूँ नज़ारे तो हमेशा थे किए सर ऊँचा
मैंने नज़रों को ही झुकती हुई देखा अक़्सर
चाँद हो या न हो ग़ाफ़िल को गरज़ क्या आख़िर
रात भर ढूँढना पड़ता है उजाला अक़्सर
-‘ग़ाफ़िल’
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