आइए! हम आपको कविता जिमाते हैं।
हम कविता के पाकशास्त्री हैं,
बड़ी लज़ीज कविता बनाते हैं।।
क्या खाइएगा? वही न! जो हम पकाएंगे,
हम परोसेंगे और आप खाते ही जाएंगे।
क्योंकि हमारे परोसने का अन्दाज है निराला,
कविता भले ही कच्ची हो,
पर मजेदार होगा हर निवाला।।
ये मेरा दावा है कि आप नहीं होंगे बोर,
इत्मिनान रखिए! छन्दों के बर्त्तनों में
होता नहीं है शोर।
ये आपस में कभी-कभार टकराते तो जरूर हैं,
पर बड़े ही प्रेम से, आदत है, मगरूर हैं।।
दोहा, घनाक्षरी, चौपाई, पद हो या सवईया,
बड़े ही सुपाच्य हैं, हज़मुल्ला की जरूरत नहीं
बस खाइए भईया।।
इस घनाक्षरी की थाली में देश-भक्ति की पूरियां
जो कड़कड़ाती दिखायी दे रही हैं, घबराइए नहीं!
इसमें देशी घी का मोयन है जादा, मुँह में रखते ही
गल जाएंगी, आप मस्त हो जाएंगे ऐसा है मेरा वादा।।
हम नहीं कहते कि इसे खाकर आप
भगत सिंह, हमीद और आज़ाद हो जाएंगे
पर इतना है कि पत्नी के आगे ही सही,
आपके बाजू, चाहे हवा में ही, ज़ुरूर फड़फड़ाएंगे।।
इसको ‘बौखल’ और ‘बौझड़’ की हास्य चटनी के साथ
खाइए, ‘वाहिद’ के साम्प्रदायिक सद्भाव के मिक्सवेज़
का भी लुत्फ़ उठाइए अथवा ‘सुरेश’ की यायावरी प्रवृत्ति
को अपनाना हो जरूरी, तो एक मुखौटा ‘विजय’ का अवश्य
खरीदिए वर्ना यात्रा रह जाएगी अधूरी।।
अब चूँकि गेहूँ के दाने, चावल, और समस्त खद्यान्न
यहां तक कि जंगल, जानवर और जंगली उत्पाद
सब कुछ ‘आशू’ भाई के मुताबिक होने जा रहे हैं
लोरियों और कहानियों में, तो अभी भी समय है
चेत जाइए और आइए ‘ग़ाफ़िल’ के ढाबे में आइए!
‘सन्त’ समागम की भक्ति-प्रेम-रस पूरित तस्मयी का
मज़ा है कुछ और, हाँ! ग़ाफ़िल के ढाबे की यह
‘व्याख्या’ गर समझ में न आए तो चुप-चाप
चले जाना मत करना कुछ शोर वर्ना
हम कविता के पाकशास्त्री हैं,
बड़ी लज़ीज कविता बनाते हैं।।
क्या खाइएगा? वही न! जो हम पकाएंगे,
हम परोसेंगे और आप खाते ही जाएंगे।
क्योंकि हमारे परोसने का अन्दाज है निराला,
कविता भले ही कच्ची हो,
पर मजेदार होगा हर निवाला।।
ये मेरा दावा है कि आप नहीं होंगे बोर,
इत्मिनान रखिए! छन्दों के बर्त्तनों में
होता नहीं है शोर।
ये आपस में कभी-कभार टकराते तो जरूर हैं,
पर बड़े ही प्रेम से, आदत है, मगरूर हैं।।
दोहा, घनाक्षरी, चौपाई, पद हो या सवईया,
बड़े ही सुपाच्य हैं, हज़मुल्ला की जरूरत नहीं
बस खाइए भईया।।
इस घनाक्षरी की थाली में देश-भक्ति की पूरियां
जो कड़कड़ाती दिखायी दे रही हैं, घबराइए नहीं!
इसमें देशी घी का मोयन है जादा, मुँह में रखते ही
गल जाएंगी, आप मस्त हो जाएंगे ऐसा है मेरा वादा।।
हम नहीं कहते कि इसे खाकर आप
भगत सिंह, हमीद और आज़ाद हो जाएंगे
पर इतना है कि पत्नी के आगे ही सही,
आपके बाजू, चाहे हवा में ही, ज़ुरूर फड़फड़ाएंगे।।
इसको ‘बौखल’ और ‘बौझड़’ की हास्य चटनी के साथ
खाइए, ‘वाहिद’ के साम्प्रदायिक सद्भाव के मिक्सवेज़
का भी लुत्फ़ उठाइए अथवा ‘सुरेश’ की यायावरी प्रवृत्ति
को अपनाना हो जरूरी, तो एक मुखौटा ‘विजय’ का अवश्य
खरीदिए वर्ना यात्रा रह जाएगी अधूरी।।
अब चूँकि गेहूँ के दाने, चावल, और समस्त खद्यान्न
यहां तक कि जंगल, जानवर और जंगली उत्पाद
सब कुछ ‘आशू’ भाई के मुताबिक होने जा रहे हैं
लोरियों और कहानियों में, तो अभी भी समय है
चेत जाइए और आइए ‘ग़ाफ़िल’ के ढाबे में आइए!
‘सन्त’ समागम की भक्ति-प्रेम-रस पूरित तस्मयी का
मज़ा है कुछ और, हाँ! ग़ाफ़िल के ढाबे की यह
‘व्याख्या’ गर समझ में न आए तो चुप-चाप
चले जाना मत करना कुछ शोर वर्ना
हम पाकशास्त्रीगण लाल-पीले हो जाएंगे
और आप हो जावोगे बोर।
-ग़ाफ़िल
-ग़ाफ़िल
अरे वाह , आप तो एक अच्छे व्यंगकार भी हैं....
ReplyDeleteवाह..क्या खूब ...कटाक्ष किया है...शुभकामनाएँ !
kya baat hai sir.. koi jabab nahi aapki bibidhta ka.. aaj main ek baar to chaunka ki ye kisi aur ka blog to nahi khol liya... bahut sari badhiyon ke sath
ReplyDeleteमज़ेदार व्यंग .
ReplyDeleteआपकी पाक कला का जवाब नहीं। स्वादिष्ट रही ये कविता ।कच्ची नहीं थी...परिपक्व लगी।
ReplyDeleteआपका यह व्यंग्य निश्चित रूप से बहुत ही उम्दा और परिपक्व है। पढ़ने में मज़ा आ गया। धन्यवाद तथा बधाई स्वीकार करें...
ReplyDeleteअरे वाह! क्या दे मारा...
ReplyDeleteव्यंग्य की विधा भी आप पर क्या फबी... बधाई
बेहतरीन कटाक्ष.....दिलचस्प...
ReplyDeleteआद० मिश्रा जी ,
ReplyDeleteसप्रेम अभिवादन
आप तो अपने बगल के ही निकले ,बड़ी प्रसन्नता हुई |
'गाफिल का ढाबा' बहुत प्यारा लगा
अपनी रचना में विभिन्न छंदों और कुछ मंचीय कवियों को शामिलकर इसकी रोचकता बढ़ा दी है |
कहीं न कहीं मुलाकात जरूर होगी ........शुभकामनाओं सहित
और ढाबों का तो पता नहीं पर आपका बड़ा सुपाच्य है।
ReplyDeleteआप सभी कद्रदानों को बहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteआपका अंदाज़े बयां बहुत अच्छा लगा ......
ReplyDeleteसचमुच काफी स्वादिष्ट लगा गाफिल साहब - वह क्या बात है? रोचक प्रस्तुति.
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
ज़ायका तो वाकई अच्छा लगा। अब ये ढाबा भी खूब चलेगा। शुभकामनायें।
ReplyDeleteapp ney to such mei kavita ko hi khaney lyak bana diya maaza agya wha wha.
ReplyDeleteबहुत लज़ीज़ कविता पकाई है आपने। उम्दा स्वाद था। और क्या सही कहा है ... “छन्दों के बर्त्तनों में होता नहीं है शोर।”
ReplyDeletekya khoob vyang likha hai....
ReplyDeleteaapke pakwan ka swaad bahut accha tha,namak na jyada na kum...
मिश्रा जी!
ReplyDeleteआप अतुकान्त रचनाएँ बहुत अच्छी लिखते हैं!
यह रचना भी मुझे बहुत पसंद आई!
मगर मेरी मजबूरी यह है कि मैं अतुकाम्त नहीं लिख पाता हूँ!
आपसे प्रेरणा मिल रही है, अब प्रयास करूँगा!
आपकी पाक कला का जवाब नहीं
ReplyDeleteaapke dhabe se sab swaad mil gaya
ReplyDeleteआपकी कविता तो लजीज.. दाल नहीं... साम्भर जैसी ..क्यूंकि इसमें तो सब्जियों का स्वाद है .. सादर
ReplyDelete'छन्दों के बर्त्तनों में होता नहीं है शोर।
ReplyDeleteये आपस में कभी-कभार टकराते तो जरूर हैं,
पर बड़े ही प्रेम से, आदत है, मगरूर हैं'
आपके छन्दों की मगरूरी और प्रेम एक साथ प्रशंसनीय हैं...ध्न्यवाद
कविता के इस ढाबे पर आ कर बहुत अच्छा लगा !
ReplyDeleteआभार !
वाह साहब मैं तो सौभाग्यशाली हूँ जो इस ढाबे तक गया और खा पीकर आया ।
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