सुबो-शाम लिख रहा हूँ, तेरा नाम लिख रहा हूँ।
मैं इबारते-मुकद्दस का जाम लिख रहा हूँ॥
ग़ैरों पे करम तेरे, और दिल पे सितम मेरे,
मैं ख़ुद पे आज इसका इल्जाम लिख रहा हूँ।
यूँ भी तेरी जफ़ाई, क्या-क्या न गुल खिलाई?
तेरे वास्ते भी अच्छा सा काम लिख रहा हूँ।
आया हूँ क्यूँ यहाँ पे? और जाऊँगा कहाँ पे?
इस बात से नावाक़िफ़ अंजाम लिख रहा हूँ।
ग़ाफ़िल, बे-होशियारी और बे-तज़ुर्बेकारी,
आल्लाहो-ईसा, साहिब-वो-राम लिख रहा हूँ॥
खूबसूरत गज़ल .
ReplyDeleteबहुत उम्दा!!
ReplyDeleteसर्व धर्म समभाव से ओत-प्रोत विशिष्ट रचना...बधाई
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना...बधाई
ReplyDeleteग़ैरों पे करम तेरे, और दिल पे सितम मेरे,
ReplyDeleteमैं ख़ुद पे आज इसका इल्जाम लिख रहा हूँ।
bahut sunder ...
bahut acche sheron aur bhavon se likhi gayi ghazal
mai bhi aapko aatho jaam likh raha hoon
ReplyDeleteबहुत बढ़िया गजल लिखा है | शुभकामनाएं..
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति .
ReplyDeleteशुभ मकर संक्रांति
आया हूँ क्यूँ यहाँ पे? और जाऊँगा कहाँ पे?
ReplyDeleteइस बात से नावाक़िफ़ आराम लिख रहा हूँ।
....
नावाकिफ नहीं हैं जनाब आप ...जब इतना सोंच रहे हैं तो नावाकिफ हरगिज नहीं ...अच्छी गज़ल के लिए मुबारक बाद !
आप वाक़िफ हों श्रीमन्! आखि़र मैं 'ग़ाफ़िल' ही तो हूँ
Deleteवाह बढ़िया गज़ल..
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteआया हूँ क्यूँ यहाँ पे? और जाऊँगा कहाँ पे?
ReplyDeleteइस बात से नावाक़िफ़ आराम लिख रहा हूँ।
वाह ...बहुत ही बढिया।
वाह, बहुत खूब, गाफिल जी।
ReplyDeleteबहुत बढि़या ग़ज़ल।