यह पता था के करेगा ही तमाशा पानी
चश्म से यूँ जो लगातार है बहता पानी
यह भी सच है के रहे बहता अगर तो अच्छा
ज़ह्र हो जाए है इक ठौर ही ठहरा पानी
मेरे जलते हुए जी को क्या तसल्ली देगा
कोई आवारा सी ज़ुल्फ़ों से टपकता पानी
देगा तरज़ीह भी अब कौन भला फिर उसको
शख़्स वह जिसकी भी आँखों का है उतरा पानी
हिज़्र के दिन हों के हो रात मिलन की ग़ाफ़िल
कोई भी हाल हो है चश्म भिगोता पानी
-‘ग़ाफ़िल’
चश्म से यूँ जो लगातार है बहता पानी
यह भी सच है के रहे बहता अगर तो अच्छा
ज़ह्र हो जाए है इक ठौर ही ठहरा पानी
मेरे जलते हुए जी को क्या तसल्ली देगा
कोई आवारा सी ज़ुल्फ़ों से टपकता पानी
देगा तरज़ीह भी अब कौन भला फिर उसको
शख़्स वह जिसकी भी आँखों का है उतरा पानी
हिज़्र के दिन हों के हो रात मिलन की ग़ाफ़िल
कोई भी हाल हो है चश्म भिगोता पानी
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज मंगलवार (07-03-2017) को
ReplyDelete"आई बसन्त-बहार" (चर्चा अंक-2602)
पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'