Monday, March 27, 2017

मगर लोगों के हाथों के कहाँ पत्थर बदलते हैं

कभी रस्ता बदलता है कभी रहबर बदलते हैं
पता क्या था यहाँ हर एक पल मंज़र बदलते हैं

बदल जाएँ भी गर हालाते ख़स्तः कुछ ज़माने के
नहीं बुज़दिल ये मानेंगे के हिम्मतवर बदलते हैं

छुपाते फिर रहे मुँह सोचकर गिरगिट यही शायद
के आदमजात उनसे रंग अब बेहतर बदलते हैं

बहुत मुश्किल बदल देना है गो आदत ख़राब अपनी
लगाकर जोर सारा आइए हम पर बदलते हैं

बदल जाते हैं मंजनू के यहाँ सर रोज़ ही कितने
मगर लोगों के हाथों के कहाँ पत्थर बदलते हैं

भला क्या हो सकेगा हुस्नवालों की इस आदत का
के वादे कर तो लेते हैं मगर अक़्सर बदलते हैं

रहे ख़ुशहाल उनकी ज़िन्दगी यह हो नहीं सकता
सरायों की तरह ग़ाफ़िल जो अपना घर बदलते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

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