Thursday, April 18, 2019

बयाँ हो चश्म से जो बन्दगी है

भले तू कह के ये आवारगी है
रवानी है अगर तो ही नदी है

हुज़ूर अपनी भी जानिब ग़ौर करिए
इधर भी तो बहारे ज़िन्दगी है

यही तो वक़्त की है ख़ासियत अब
कभी जो था ग़लत वो सब सही है

ज़माने की हसीं चिकनी सड़क पर
न फिसले जो वो कैसा आदमी है

ज़ुबाँ से हो बयाँ है बात भर वो
बयाँ हो चश्म से जो बन्दगी है

है क्या तू भी समन्दर कोई ग़ाफ़िल
जो तेरी इस क़दर तिश्नालबी है

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment: