भले तू कह के ये आवारगी है
रवानी है अगर तो ही नदी है
हुज़ूर अपनी भी जानिब ग़ौर करिए
इधर भी तो बहारे ज़िन्दगी है
यही तो वक़्त की है ख़ासियत अब
कभी जो था ग़लत वो सब सही है
ज़माने की हसीं चिकनी सड़क पर
न फिसले जो वो कैसा आदमी है
ज़ुबाँ से हो बयाँ है बात भर वो
बयाँ हो चश्म से जो बन्दगी है
है क्या तू भी समन्दर कोई ग़ाफ़िल
जो तेरी इस क़दर तिश्नालबी है
-‘ग़ाफ़िल’
रवानी है अगर तो ही नदी है
हुज़ूर अपनी भी जानिब ग़ौर करिए
इधर भी तो बहारे ज़िन्दगी है
यही तो वक़्त की है ख़ासियत अब
कभी जो था ग़लत वो सब सही है
ज़माने की हसीं चिकनी सड़क पर
न फिसले जो वो कैसा आदमी है
ज़ुबाँ से हो बयाँ है बात भर वो
बयाँ हो चश्म से जो बन्दगी है
है क्या तू भी समन्दर कोई ग़ाफ़िल
जो तेरी इस क़दर तिश्नालबी है
-‘ग़ाफ़िल’
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
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