निग़ाहे लुत्फ़ गर होता न क्यूँकर देख सकता था
तू दामन में छुपा चुपके से नश्तर देख सकता था
तेरी मंज़िल निग़ाहों में तेरी होती अगर उसदम
यक़ीनन तू पड़े रस्तों के पत्थर देख सकता था
मेरा दीदार ही करना तुझे था तो, मेरी जानिब
नहीं थी रोशनी गर, दिल जलाकर देख सकता था
नहीं समझा ज़ुरूरी यार वरना बारिशों में भी
तू बेहतर मेरे जलते जी का मंजर देख सकता था
ज़ुबान अपनी रही पर्दे में अक़्सर क्यूँकि बेमतलब
कोई भी हुस्न उसका अदबदाकर देख सकता
जो होता लुत्फ़ तुझको तो ज़रा कोशिश पे ही ग़ाफ़िल
मेरी आँखों में लहराता समंदर देख सकता था
-‘ग़ाफ़िल’
तू दामन में छुपा चुपके से नश्तर देख सकता था
तेरी मंज़िल निग़ाहों में तेरी होती अगर उसदम
यक़ीनन तू पड़े रस्तों के पत्थर देख सकता था
मेरा दीदार ही करना तुझे था तो, मेरी जानिब
नहीं थी रोशनी गर, दिल जलाकर देख सकता था
नहीं समझा ज़ुरूरी यार वरना बारिशों में भी
तू बेहतर मेरे जलते जी का मंजर देख सकता था
ज़ुबान अपनी रही पर्दे में अक़्सर क्यूँकि बेमतलब
कोई भी हुस्न उसका अदबदाकर देख सकता
जो होता लुत्फ़ तुझको तो ज़रा कोशिश पे ही ग़ाफ़िल
मेरी आँखों में लहराता समंदर देख सकता था
-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)
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