Saturday, March 25, 2017

लेकिन कोई तो है

तफ़रीह को था आया मगर जाँ पे आ गया
कैसा हसीन ख़्वाब निगाहों को भा गया

बदनाम कर सकूँगा न मैं लेकर उसका नाम
लेकिन कोई तो है जो मेरे जी पे छा गया

कहते बना तो कहके रहूँगा मैं एक दिन
जो भी सितमज़रीफ़ सितम मुझपे ढा गया

मेरा गया है चैनो सुक़ूँ याँ तलक़ के जी
उल्फ़त की रह में उसका बताए के क्या गया

उस चारागर का ज़िक़्र भी करना न जो मुझे
बस इक निग़ाह डालके पागल बना गया

रोका था कौन जाने को दिल के दयार से
ग़ाफ़िल जो जान से ही गया ख़ामख़ा गया

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-03-2017) को

    "राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद" (चर्चा अंक-2611)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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