फ़र्क़ क्या है के रात काली है
याद तेरी है तो दीवाली है
मद भरे चश्म का तसव्वुर कर
मैंने भी तिश्नगी मिटा ली है
पा मेरे तब ही लड़खड़ाए हैं
जब भी तूने निगाह डाली है
रू-ब-रू है मेरा दिले नादाँ
और तेरी नज़र दुनाली है
अक्स तेरा उभर रहा हर सू
शायद अब नींद आने वाली है
आईने पर नज़र न कर ग़ाफ़िल
क्यूँकि तेरी नज़र सवाली है
-‘ग़ाफ़िल’
याद तेरी है तो दीवाली है
मद भरे चश्म का तसव्वुर कर
मैंने भी तिश्नगी मिटा ली है
पा मेरे तब ही लड़खड़ाए हैं
जब भी तूने निगाह डाली है
रू-ब-रू है मेरा दिले नादाँ
और तेरी नज़र दुनाली है
अक्स तेरा उभर रहा हर सू
शायद अब नींद आने वाली है
आईने पर नज़र न कर ग़ाफ़िल
क्यूँकि तेरी नज़र सवाली है
-‘ग़ाफ़िल’
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, तीन साधू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteरू-ब-रू है मेरा दिले नादाँ
ReplyDeleteऔर तेरी नज़र दुनाली है
वाह, बहत खूब।