ताब तो ख़ुद देखने की है नहीं उनमें आईना हमको वो जाने क्यूँ दिखाते हैं चूम गुंचे जाने कितने और किन किन को बरगलाने शब को सारे ख़्वाब आते हैं
-‘ग़ाफ़िल’
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