कहोगे क्या उसे जो तिफ़्ल ख़िदमतगार रखता है
औ तुर्रा यह के दूकाँ में सरे बाज़ार रखता है
कहा जाता है वह गद्दार इस दुनिया-ए-फ़ानी में
जो रहता है इधर औ जी समुन्दर पार रखता है
वो सपने टूट जाते हैं, जो पाक़ीज़ः नहीं होते
और उनको देखने का जज़्बा भी गद्दार रखता है
पता है तू न आएगा न जाने क्यूँ मगर फिर भी
उमीद आने की तेरे यह तेरा बीमार रखता है
उसे अदना समझने की न ग़ाफ़िल भूल कर देना
सजाकर जो पलक पर आँसुओं का हार रखता है
-‘ग़ाफ़िल’
औ तुर्रा यह के दूकाँ में सरे बाज़ार रखता है
कहा जाता है वह गद्दार इस दुनिया-ए-फ़ानी में
जो रहता है इधर औ जी समुन्दर पार रखता है
वो सपने टूट जाते हैं, जो पाक़ीज़ः नहीं होते
और उनको देखने का जज़्बा भी गद्दार रखता है
पता है तू न आएगा न जाने क्यूँ मगर फिर भी
उमीद आने की तेरे यह तेरा बीमार रखता है
उसे अदना समझने की न ग़ाफ़िल भूल कर देना
सजाकर जो पलक पर आँसुओं का हार रखता है
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-01-2017) को "पढ़ना-लिखना मजबूरी है" (चर्चा अंक-2577) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
नववर्ष 2017 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति
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