Wednesday, August 02, 2017

क्या पता दिन है कहाँ रात किधर होती है

तेरे अश्कों की कहाँ मुझको ख़बर होती है
लाख मैं कहता रहूँ बात ये पर होती है

मैं लगा डालूँगा फिर अपने हर इक इल्मो फ़न
ये तेरी ज़ुल्फ़ किसी तर्ह जो सर होती है

तज़्किरा आज ही क्यूँ फ़र्च बयानी पे मेरी
ऐसी नादानी तो याँ शामो सहर होती है

सोचता हूँ के मेरा हाल भला क्या होगा
नाज़नीना तू अगर ज़ेरे नज़र होती है

एक बंजारे का मत पूछ ठिकाना, अपना
क्या पता दिन है कहाँ रात किधर होती है

ख़ाक तो डाल दिया मैंने ज़फ़ाई पे तेरी
दिल में रह-रहके मेरे टीस मगर होती है

होनी तो है ही किसी रोज़ फ़ज़ीहत अपनी
फ़र्क़ क्या आज ही ग़ाफ़िल जी अगर होती है

-‘ग़ाफ़िल’

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