Saturday, August 12, 2017

क़ुद्रतन गोया मैं गंगाजल रहा हूँ

जिस तरह उल्फ़त में तेरी जल रहा हूँ
क्या कभी इस तर्ह भी बेकल रहा हूँ

ख़ुश हुआ जिसने भी ओढ़ा या बिछाया
हर जनम मैं मख़मली कम्बल रहा हूँ

तू तो इस दर्ज़ा ख़फ़ा है आह मुझसे!
एक पल नज़रों से क्या ओझल रहा हूँ

आग हो सब दूर हट जाओ ऐ जज़्बो
बर्फ़ के मानिन्द मैं अब गल रहा हूँ

तू किसी भी तर्ह मेरा हो न पाया
गो तेरी आँखों का मैं काज़ल रहा हूँ

काश! तुझको इल्म हो जाता के मैं ही
तुझमें उल्फ़त का वो कल बल छल रहा हूँ

पीने वाले पी रहे ज्यूँ आबे अह्मर
फ़ित्रतन गोया मैं गंगाजल रहा हूँ

नब्ज़ अपनी की शुरू क्या जाँच करनी
लोग बोले कबका मैं पागल रहा हूँ

वक़्त ने पकड़ाई है जो राह उस पर
रोते हँसते गिरते उठते चल रहा हूँ

भूल जाए लाख तू पर हर दफा मैं
खुरदुरे प्रश्नो का तेरे हल रहा हूँ

देना तो होगा सुबूत अब तुझको ग़ाफ़िल
मैं हूँ सोना क्यूँ कहा पीतल रहा हूँ

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (13-08-2017) को "आजादी के दीवाने और उनके व्यापारी" (चर्चा अंक 2695) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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