जिस अदा से आ मेरे शाने लगी
मुझको रुस्वाई भी रास आने लगी
अब क़यामत मुझपे आने को है, वो
सुन रहा मेरी ग़ज़ल गाने लगी
बाद उसके क्या बताऊँ किस तरह
ख़्वाहिश अपनी जाके मैख़ाने लगी
वस्ल की शब का ज़रा आ पाए लुत्फ़
उसके पहले ही वो क्यूँ जाने लगी
हो कभी शायद ही अब दीदारे गुल
जब कली ही यार मुरझाने लगी
होश में आए भी ग़ाफ़िल किस तरह
फिर वो पल्लू अपना सरकाने लगी
-‘ग़ाफ़िल’
मुझको रुस्वाई भी रास आने लगी
अब क़यामत मुझपे आने को है, वो
सुन रहा मेरी ग़ज़ल गाने लगी
बाद उसके क्या बताऊँ किस तरह
ख़्वाहिश अपनी जाके मैख़ाने लगी
वस्ल की शब का ज़रा आ पाए लुत्फ़
उसके पहले ही वो क्यूँ जाने लगी
हो कभी शायद ही अब दीदारे गुल
जब कली ही यार मुरझाने लगी
होश में आए भी ग़ाफ़िल किस तरह
फिर वो पल्लू अपना सरकाने लगी
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-08-2017) को "चौमासे का रूप" (चर्चा अंक 2702) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद
Delete