न यह समझो के बस दो चार तक है
रसूख़ अपना ज़मीं से ता’फ़लक़ है
नशा तारी है पीए बिन यहाँ जो
फ़ज़ाओं में हमारी ही महक़ है
बिछे हैं गुल जो आने की हमारे
हो जैसे भी बहारों को भनक है
तुम्हारी सिम्त हैं नज़रें हमारी
रक़ीबों का तुम्हारे चेहरा फ़क है
एक क़त्आ-
गई दुनिया बदल बस इस सबब ही
हमारे होने में अब हमको शक है
वगरना हम वही हैं थे कभी जो
हमें तो याद अब तक हर सबक है
फ़तह ब्रह्माण्ड हो सकता है ग़ाफ़िल
हमारे चश्म में अब भी लचक है
-‘ग़ाफ़िल’
रसूख़ अपना ज़मीं से ता’फ़लक़ है
नशा तारी है पीए बिन यहाँ जो
फ़ज़ाओं में हमारी ही महक़ है
बिछे हैं गुल जो आने की हमारे
हो जैसे भी बहारों को भनक है
तुम्हारी सिम्त हैं नज़रें हमारी
रक़ीबों का तुम्हारे चेहरा फ़क है
एक क़त्आ-
गई दुनिया बदल बस इस सबब ही
हमारे होने में अब हमको शक है
वगरना हम वही हैं थे कभी जो
हमें तो याद अब तक हर सबक है
फ़तह ब्रह्माण्ड हो सकता है ग़ाफ़िल
हमारे चश्म में अब भी लचक है
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-08-2017) को "वृक्षारोपण कीजिए" (चर्चा अंक 2691) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक