न यह कहूँगा के उल्फ़त में यार मर जाओ
मगर किसी से मुहब्बत हुज़ूर कर जाओ
इधर है हुस्नो शबाब और उधर रब जाने
ये है तुम्हीं पे इधर आओ या उधर जाओ
फ़क़त तुम्हीं से है बाकी उमीद अश्क अपनी
ज़रा ही वक़्त को पर आखों में ठहर जाओ
करूँ तुम्हें मैं ख़बरदार यह न ठीक लगे
फरेबियों के नगर दोस्त मत मगर जाओ
हाँ वो जो इश्क़ में ग़ाफ़िल किए हो वादे तमाम
अगर ख़ुशी हो तुम्हें शौक से मुकर जाओ
-‘ग़ाफ़िल’
मगर किसी से मुहब्बत हुज़ूर कर जाओ
इधर है हुस्नो शबाब और उधर रब जाने
ये है तुम्हीं पे इधर आओ या उधर जाओ
फ़क़त तुम्हीं से है बाकी उमीद अश्क अपनी
ज़रा ही वक़्त को पर आखों में ठहर जाओ
करूँ तुम्हें मैं ख़बरदार यह न ठीक लगे
फरेबियों के नगर दोस्त मत मगर जाओ
हाँ वो जो इश्क़ में ग़ाफ़िल किए हो वादे तमाम
अगर ख़ुशी हो तुम्हें शौक से मुकर जाओ
-‘ग़ाफ़िल’
वाह वाह जी
ReplyDeleteक्या बात है
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०७ मई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।