Saturday, September 29, 2018

अजल से भी निभा लेते हैं गर हम ख़ुद पे आते हैं

हमारे जिस्म को जो रात चादर सा बिछाते हैं
वही दिन के उजाले में पड़ी सलवट गिनाते हैं

ग़मों को दूर करने का तरीक़ा एक है यह भी
के उनको देखिए अक़्सर जो अक़्सर मुस्कुराते हैं

करें बर्बाद वक़्त अपना चलाकर बात क्यूँ उनकी
जो रातो दिन फरेबों में ही वक़्त अपना गँवाते हैं

कभी कम हो नहीं सकते हमारे हौसले हर्गिज
ग़ज़ल तो गाते ही गाते हैं हम नौहा भी गाते हैं

तू अपनी देख हम उश्शाक़ हैं ग़ाफ़िल! हमारा क्या!!
अजल से भी निभा लेते हैं गर हम ख़ुद पे आते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

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