शम्स है सिरहाने या छत पर क़मर है
फ़र्क़ है क्या रोज़ो शब सोना अगर है
क्यूँ नहीं उठ सकती आह आख़िर ज़माने!
जो कटा शब्जी नहीं है एक सर है
नींद अगर आए न तो क्यूँकर न आए
मैं हूँ बिस्तर में ही यार और अपना घर है
गुफ़्तगू बेबाक होनी चाहिए थी
किसलिए शरमा रहा था इश्क़ अगर है
मुस्कुरा दे कुछ के जी में आए ठंढक
या तेरे सीने में ग़ाफ़िल आग भर है
-‘ग़ाफ़िल’
फ़र्क़ है क्या रोज़ो शब सोना अगर है
क्यूँ नहीं उठ सकती आह आख़िर ज़माने!
जो कटा शब्जी नहीं है एक सर है
नींद अगर आए न तो क्यूँकर न आए
मैं हूँ बिस्तर में ही यार और अपना घर है
गुफ़्तगू बेबाक होनी चाहिए थी
किसलिए शरमा रहा था इश्क़ अगर है
मुस्कुरा दे कुछ के जी में आए ठंढक
या तेरे सीने में ग़ाफ़िल आग भर है
-‘ग़ाफ़िल’
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 19 फरवरी 2020 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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