न यूँ हुआ है के घर हर कोई मक़ाँ निकले
के गर हो आग यक़ीनन वहाँ धुआँ निकले
तभी कहूँगा के आया है लुत्फ़ मुझको भी गर
ज़मीन खोदूँ मैं और उससे आसमाँ निकले
किसी भी दौर में कोई कहीं भी कैसी भी
पढ़े किताब तेरी मेरी दास्ताँ निकले
कुछ ऐसी बात है मुझमें के है नसीब मेरा
पहुँच गया तो बियाबाँ भी गुलसिताँ निकले
न इल्म होगा ख़ुदा को भी यह के मैं ग़ाफ़िल
चलूँ कहाँ से मेरा रास्ता कहाँ निकले
-‘ग़ाफ़िल’
के गर हो आग यक़ीनन वहाँ धुआँ निकले
तभी कहूँगा के आया है लुत्फ़ मुझको भी गर
ज़मीन खोदूँ मैं और उससे आसमाँ निकले
किसी भी दौर में कोई कहीं भी कैसी भी
पढ़े किताब तेरी मेरी दास्ताँ निकले
कुछ ऐसी बात है मुझमें के है नसीब मेरा
पहुँच गया तो बियाबाँ भी गुलसिताँ निकले
न इल्म होगा ख़ुदा को भी यह के मैं ग़ाफ़िल
चलूँ कहाँ से मेरा रास्ता कहाँ निकले
-‘ग़ाफ़िल’
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-१ हेतु नामित की गयी है। )
ReplyDelete'बुधवार' ०४ मार्च २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
बहुत खूब
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